エピソード

  • BHARAT LAUTA SHRI RAM NISHANI LEKAR
    2025/10/29

    अयोध्या लौटने की विनती अस्वीकार किए जाने पर भरत मौन रह जाते हैं। रात को कैकेयी स्वयं राम की कुटिया में जाकर उनसे अनुरोध करती हैं कि यदि वह उन्हें माँ मानते हैं, तो उनकी आज्ञा का पालन करें और अयोध्या लौट चलें। परंतु राम तर्क देते हैं कि यदि वह उन्हें एक अपमानजनक जीवन देना चाहती हैं, तो वे लौटने को तैयार हैं। राम के उत्तर से कैकेयी निरुत्तर हो जाती हैं। अगले दिन सभा बुलाई जाती है। गुरु वशिष्ठ जनक से कहते हैं कि इस धर्मसंकट की घड़ी में केवल वे ही मार्गदर्शक बन सकते हैं। राम और भरत जनक के निर्णय का पालन करने का वचन देते हैं। भरत विनम्रता से राम का वन में ही राज्याभिषेक करने की विनती करते हैं। जनक भगवान शंकर का स्मरण कर निर्णय देते हैं कि प्रेम धर्म से परे होता है, और भरत का निष्कलंक प्रेम अधिक शक्तिशाली है। लेकिन प्रेम निःस्वार्थ होता है, वह कुछ माँगता नहीं, केवल देता है। वह भरत से कहते हैं कि वह राम से उनकी इच्छा पूछें और उसी का पालन करें। भरत राम से विनती करते हैं। राम भरत के प्रेम से प्रभावित होकर राज्य स्वीकार करते हैं, पर वनवास की अवधि पूर्ण होने तक राज्य संचालन का दायित्व भरत को सौंपते हैं। भरत राम से चरण पादुकाएं लेकर, उन्हें सिर पर धारण कर अयोध्या लौटते हैं और उन्हें सिंहासन पर रख राम के प्रतिनिधि रूप में शासन की घोषणा करते हैं और स्वयं नंदीग्राम में कुटिया बनाकर तपस्वी जीवन बिताते हुए राज्य का संचालन करने लगते हैं। पत्नी मांडवी भरत की सेवा करने की इच्छा से कुटिया आती हैं, पर भरत उन्हें माता कौशल्या की सेवा करने के लिए महल में वापस भेज देते हैं। इधर राम यह जानकर कि अयोध्यावासी चित्रकूट तक पहुँच चुके हैं, दंडकारण्य की ओर प्रस्थान करते हैं। कैकेयी, पश्चाताप की अग्नि में तपकर, भरत से मिलने नंदीग्राम आती हैं और कुटिया में रहने का आग्रह करती है, लेकिन भरत कैकेयी को कर्मों का फल स्वरुप पाई हुई पीड़ा को राजमहल में भोगने के लिए कहते है, क्योंकि उसके हृदय में अब भी कैकेयी के द्वारा किए गए प्रकरण की ज्वाला प्रज्वलित थी।

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  • SHRI RAM NE NIBHAYA PITA KA VACHAN
    2025/10/27
    चित्रकूट में जब राम अपनी माताओं को सामने देखते हैं, वह भावुक हो जाते है। यह दृश्य इतना मार्मिक होता है कि वहाँ उपस्थित सभी जनों के हृदय करुणा, स्नेह और ग्लानि से भर जाते हैं। राम सबसे पहले माता कैकेयी के चरण स्पर्श करते हैं, जिसे देख कैकेयी आत्मग्लानि से काँप उठती हैं, पर राम उन्हें दोष मुक्त कर नियति का विधान बताते हुए उन्हें सांत्वना देते हैं। इसके पश्चात वे माता सुमित्रा और कौशल्या के चरण स्पर्श करते हैं। गुरु वशिष्ठ के निर्देश पर राम और लक्ष्मण, पवित्र मन्दाकिनी के जल और तिल से अपने दिवंगत पिता दशरथ के लिए तर्पण करते हैं, जिससे उनका श्रमण धर्म पूर्ण हो सके। रात्रि में धर्म, सेवा और परंपरा का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत होता है - राम गुरु वशिष्ठ के चरण दबाते हैं, वहीं सीता तीनों माताओं की सेवा करती हैं। यह केवल श्रद्धा नहीं, बल्कि भारतीय कुल परंपरा और स्त्री धर्म की जीवंत अभिव्यक्ति है। कैकेयी ग्लानि से भरकर सीता से कहती हैं कि वह राम से कहें कि उन्हें मृत्युदण्ड दें। सीता उन्हें प्रेमपूर्वक क्षमा करती हैं और शांत करती हैं। सुमित्रा, सीता से लक्ष्मण की सेवा के विषय में जानकर भावुक हो उठती हैं। अगले दिन गुरु वशिष्ठ सभा का आयोजन करते हैं। राम वचन देते हैं कि वे गुरु की आज्ञा मानेंगे, पर साथ ही कहते हैं कि वे केवल धर्म और नीति के अनुसार ही आदेश स्वीकार करेंगे। गुरु वशिष्ठ कहते हैं कि याचक नीति-अनीति नहीं देखता, केवल हृदय की पुकार सुनता है। वह भरत से आग्रह करते हैं कि वह अपना निवेदन रखें। भरत अत्यंत भावुक स्वर में राम से अयोध्या लौटने की विनती करते हैं, कैकेयी भी अपने वरदानों को वापस लेती हैं। राम स्पष्ट करते हैं कि अब वचन पालन ही उनका धर्म है, क्योंकि केवल राजा दशरथ के पास उन्हें रोकने का अधिकार था। भरत अन्न-जल त्याग कर राम की कुटिया के सामने धरने पर बैठने की घोषणा करते हैं। तभी चित्रकूट में जनक और सुनयना के आगमन का समाचार मिलता है। सभी आशान्वित हो उठते हैं कि शायद जनक राम को मनाने में सफल होंगे। सीता जब अपने माता-पिता से मिलती हैं, तो जनक भावुक हो जाते हैं, लेकिन बेटी के संस्कार देख गर्वित होते हैं। रानी सुनयना जनक से राम को मनाने का आग्रह करती हैं। भरत भी माता कौशल्या से राम को आदेश देने का अनुरोध करते हैं। ...
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  • BHARAT CHALA APNE RAJA KO MANANE
    2025/10/24
    राजा दशरथ की अंत्येष्टि के पश्चात अगले दिन अयोध्या की राजसभा बुलाई जाती है, राजमुकुट सिंहासन पर रख हुआ होता है। शत्रुघ्न के साथ भरत के सभा में प्रवेश करने पर महर्षि वशिष्ठ भरत से कहते हैं कि महाराज दशरथ और भ्राता राम ने यह राज्य उसे सौंपा है, अब उसका कर्तव्य है कि वे सूर्यवंश की परंपरा निभाएं और राजसिंहासन को ग्रहण करें। भरत सभा से प्रश्न करते हैं कि जब राजा दशरथ ने राम को राज्य सौंपने की घोषणा की थी, तब सभी ने उसका समर्थन क्यों किया? मंत्री उत्तर देते हैं कि क्योंकि राम जैसा धर्मनिष्ठ राजा दुर्लभ होता है। तब भरत सभा से पूछते हैं कि जब ऐसे राजा को वनवास भेजा गया, तो आपने विरोध क्यों नहीं किया? यदि राम ही सबके योग्य राजा हैं, तो राजमुकुट लेकर वन चलें और वहीं उनका राज्याभिषेक करें। सभा उनकी निष्ठा से अभिभूत हो उठती है, वशिष्ठ उनकी सराहना करते हैं। भरत माता कौशल्या को भी साथ चलकर वन में राम का राज्याभिषेक करने के लिए मना लेते हैं। पश्चाताप से भरी कैकेयी के विनती करने पर कौशल्या उसे साथ ले चलने पर अपनी सहमति देती है, जिसे भरत स्वीकार कर लेते हैं। उर्मिला को जब माण्डवी यह शुभ समाचार देती है, तो उसका मन भी हर्ष से भर उठता है। अयोध्या की प्रजा, तीनों माताएं, मंत्रीगण, गुरू वशिष्ठ और सेना भरत के साथ वन के लिए प्रस्थान करते हैं। रास्ते में श्रंगवेरपुर आता है, जहाँ निषादराज गुह को भ्रम होता है कि भरत राम पर आक्रमण करने आ रहे हैं। लेकिन गाँव के पुरोहित की सलाह पर वे भरत से मिलते हैं और सच्चाई जानकर व्यथित हो उठते हैं। वे बताते हैं कि राम-सीता नंगे पाँव चित्रकूट गए हैं। यह जान भरत भी अब आगे नंगे पाँव चलने का निर्णय लेते हैं। और मार्ग में भारद्वाज मुनि का आशीर्वाद लेकर चित्रकूट पहुँच जाते हैं। कोल और भील लक्ष्मण को भरत की सेना के आगमन की सूचना देते हैं। लक्ष्मण पहले आक्रमण की आशंका से क्रोधित हो धनुष उठाते हैं, पर राम उन्हें रोक देते हैं। इस बीच भरत कुटिया में पहुँचते हैं और बड़े भाई राम के चरणों में गिर जाते हैं। राम उन्हें उठाकर हृदय से लगाते हैं। यह दृश्य देखकर लक्ष्मण आत्मग्लानि से भर उठते हैं और भरत के प्रति उठे अपने गलत विचारों के लिये उनसे क्षमा माँगते हैं। चारों भाईयों का आपस में मिलाप होता है। जब भरत राम को यह ...
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  • BHARAT KA KAKAYI PAR KRODH
    2025/10/22

    राजा दशरथ के स्वर्गवास के पश्चात महर्षि वशिष्ठ की आज्ञा से मंत्री श्रीधर, भरत और शत्रुघ्न को अयोध्या बुलाने कैकय देश पहुँचते हैं। उधर भरत को लगातार अशुभ स्वप्न आते हैं, जिससे उनका मन व्याकुल हो उठता है। जब श्रीधर उन्हें महर्षि वशिष्ठ का संदेशा देते हैं कि उन्हें तत्काल अयोध्या लौटना है, तो भरत अपने नाना और मामा से आज्ञा लेकर शत्रुघ्न सहित अयोध्या के लिए वापसी करते हैं। अयोध्या पहुँचते ही उन्हें नगर का वातावरण गहरा और उदास लगता है। जहाँ कभी उनका स्वागत उल्लास और जयघोष से होता था, वहाँ अब लोग उनसे दृष्टि चुराते हैं। यह चुप्पी किसी बड़े संकट की आहट देती है। मंथरा को छोड़कर किसी को उनकी वापसी से प्रसन्नता नहीं होती। वह भरत को तुरन्त कैकेयी के कक्ष में ले जाती है, जहाँ कैकेयी विधवा वेश में बैठी होती हैं। भरत स्तब्ध रह जाते हैं और कारण पूछते हैं। कैकेयी निर्लिप्त भाव से कहती हैं कि राजा दशरथ अब नहीं रहे। भरत का हृदय इस वज्रघात से टूट जाता है। लेकिन जब उसे ज्ञात होता है कि राम को वनवास कैकेयी के वरदानों के कारण मिला, तो उनका क्षोभ फूट पड़ता है और जब कैकेयी गर्व से कहती हैं कि अब निष्कंटक राज्य भरत का है, तो वे उन्हें सत्ता लोभिनी, पितृघातिनी और भ्रातृवियोग का कारण बताकर तीखी बातें कहते हैं। शत्रुघ्न, मंथरा पर क्रोधित होकर उसे घसीटते हुए महल से बाहर ले जाने लगता हैं, जिसे भरत राम के नाम की दुहाई देकर रोक देते हैं। वे माता कौशल्या के पास जाते हैं, जो भरत से कहती हैं कि उन्हें राम के पास वन में भेज दें। भरत दुःखी होकर कहते हैं कि वे राम को अयोध्या वापस लाएँगे। ग्लानि से भरे भरत को लगता है कि भले पाप उसकी माँ ने किया हो, लेकिन इतिहास उन्हें भ्रातद्रोही कहेगा। वशिष्ठ उन्हें शोक त्यागकर राजा दशरथ का अंतिम संस्कार करने का आदेश देते हैं। सम्पूर्ण अयोध्या अंतिम यात्रा में सम्मिलित होती है। शत्रुघ्न पिता की चिता को अग्नि देते हैं, अस्थि विसर्जन के समय भरत भावुक हो जाते हैं, तब वशिष्ठ उन्हें मोह त्यागकर विधान पूरा करने का उपदेश देते हैं।

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  • RAJA DASHRATH KA HUA NIDHAN
    2025/10/20
    श्री राम के समझाने पर अयोध्या वापस लौटे आर्य सुमन्त राजा दशरथ को समझाते हुए कहते है कि राम ने आपके लिए यही संदेश दिया है कि पिताश्री मेरी चिंता न करें, वरना मुझे दुख होगा। साथ ही भरत के लिए कहा है कि वह ऐसा कुछ न करें जिससे पिताश्री को दुख हो। इसलिए राम की खातिर दुख त्याग दीजिए। कौशल्या भी दशरथ को सांत्वना देने का प्रयास करते हुए कहती है राम, सीता और लक्ष्मण शीघ्र ही हमें अवश्य मिलेंगे। सुमन्त के वापस लौटने का समाचार लेकर कैकेयी के पास आई मंथरा उसे बताती है कि राम, सीता और लक्ष्मण गंगा पार करके वन में चले गए है। यह जानकर महाराज चुप है और किसी से कुछ नहीं कहते, कैकेयी अति प्रसन्न होती है। दशरथ को आभास हो जाता है कि उनका अंत समय आ गया है, वह अपनी पीड़ा कौशल्या से व्यक्त करते हुए कहते है कि कर्म का फल सबको भोगना पड़ता है, चाहे वह कितना भी बड़ा सम्राट हो। वह कौशल्या को श्रवण कुमार के अंधे पिता द्वारा दिया गए श्राप के बारे में स्मरण करते हुए बताते है कि विवाह पूर्व अपने यौवन के मद बहुत शिकार खेला करते थे और शब्द वेदी बाण चलाने के लिए प्रसिद्ध थे। एक बार जब वह आखेट के लिए सरयू नदी के किनारे झाड़ियों में छिपकर में किसी जंगली जानवर के पानी पीने आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। पानी में हलचल की होने पर उन्होंने जो शब्दभेदी बाण चलाया, वह एक युवक के सीने पर जा लगा। वह युवक कोई और नहीं, अपने अंध माता पिता को तीर्थयात्रा कराने निकला श्रवण कुमार था। प्राण निकलने से पहले श्रवण कुमार दशरथ से प्रार्थना करता है कि उसके माता पिता प्यासे हैं। वे उन्हें जल अवश्य पिला दें। दशरथ कलश में जल लेकर श्रवण कुमार के अंध माता पिता के पास जाते हैं। वे पश्चाताप में डूबे हुए हैं। दशरथ के हाथों से कलश लेते समय हाथ का स्पर्श होने से अंधा पिता समझ जाता है कि आगन्तुक उसका पुत्र नहीं है। दशरथ उन्हें श्रवण की मृत्यु के बारे में बताते हैं। पुत्र के मौत का समाचार सुन उसकी माता बिना पानी पिये प्राण त्याग देती हैं। अंध पिता भी अपने प्राण त्यागने का निर्णय लेता है किन्तु मरने से पहले दशरथ को श्राप देता है कि वो भी उनकी तरह पुत्र वियोग में तड़प तड़प कर मरेंगे। इस पुरानी बात को स्मरण करते हुए दशरथ धरती पर गिर पड़ते हैं और राम राम कहते हुए अपने प्राण त्याग देते हैं। ...
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  • RAJA DASHRATH KA PUTR VIYOG
    2025/10/17

    महर्षि भारद्वाज के सुझाव पर यमुना पार चित्रकूट जाने के लिए बाँसों से बने एक बेड़े लक्ष्मण स्वयं चलाते है। वही निषादराज राम को विदा कर जब अपने गृह शृंगवेरपुर लौटते हैं, तो उन्हें आर्य सुमन्त राम की प्रतीक्षा करते हुए मिलते हैं, जो दशरथ के आदेश पर राम को वन से वापस लाने के लिए आए थे। निषादराज उन्हें बताते है कि राम का स्पष्ट आदेश है कि वह वापस लौट जाएं। उधर जहाँ एक ओर अयोध्या में पुत्र वियोग में व्याकुल राजा दशरथ राम के लौट आने की आशा जीवित है। वही दूसरी ओर उनकी इस आशा से अनभिज्ञ राम, सीता और लक्ष्मण नंगे पाँव जंगल के पथरीले मार्ग पर आगे बढ़ते जा रहे हैं। ननिहाल में भरत को अशुभ स्वप्न आने पर अनुभव करते हैं कि अयोध्या में कुछ अनहोनी घट चुकी है। वन के मार्ग में राम को भील और कोलों की बस्ती मिलती है। वहां के निवासी राम को आदरपूर्वक चित्रकूट स्थित महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में ले जाते हैं। महर्षि वाल्मीकि जानते हैं कि राम कोई साधारण मानव नहीं, बल्कि साक्षात ईश्वर के अवतार हैं। वे राम से कहते हैं कि वे जिनकी कथा लिख रहे हैं, उसके नायक वही हैं। वे राम को मंदाकिनी नदी के किनारे एक कुटिया बनाकर निवास करने का परामर्श देते हैं। वनवास के नए जीवन की शुरुआत होती है। स्थानीय जन और संत मिलकर पर्णकुटी का निर्माण करते हैं। राजमहल की सुख-सुविधा में पले राम, अब वन की झोपड़ी में रहने को तत्पर हैं। राम पूजा स्थल पर अयोध्या की मिट्टी स्थापित करते हैं और उसे प्रणाम करते हैं जो उनके अयोध्या से अटूट जुड़ाव का प्रतीक है। इधर, मंत्री सुमन्त, राजमहल लौटने से पहले महर्षि वशिष्ठ के पास जाते हैं और उनसे निवेदन करते हैं कि वे राजमहल साथ चलें क्योंकि राजा दशरथ ने उनसे कहा था कि राम न आए तो सीता को तो लेकर अवश्य आना। इसलिए उन्हें विश्वास था कि यदि वशिष्ठ साथ होंगे, तो वे अपने ज्ञान और वचनों से राजा को सांत्वना देंगे। अंततः जब सुमन्त राम और सीता के बिना लौटते हैं, तो दशरथ की व्याकुलता बढ़ जाती है, वे टूट जाते हैं। महर्षि वशिष्ठ उन्हें धर्म और नीति का उपदेश देते हैं - यह जीवन, प्रारब्ध और त्याग की परीक्षा है। यह प्रसंग दर्शाता है कि धर्म का पालन करने वालों के लिये मार्ग कठिन अवश्य होता है, परंतु वह इतिहास और लोक-मानस में अमर हो जाता है।

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  • SHRI RAM AUR KEVAT PRASANG
    2025/10/15

    रात्रि में श्रीराम, सीता वृक्ष के नीचे घासफूस के बिछौने पर रात्रि विश्राम करते हैं और लक्ष्मण माता सुमित्रा के आदेश का पालन करते हुए रात्रि पहरा देते हैं। सुबह होने पर श्रीराम निषादराज से नदी पार करने के लिए नौका का प्रबंध करने का अनुरोध करते है तथा आर्य सुमन्त से वापस अयोध्या जाने, पिता दशरथ को सम्हालने और भरत के राज्याभिषेक की व्यवस्था करने का निवेदन करते हैं। सुमन्त राजा दशरथ की इच्छानुसार सीता को वापस अयोध्या भेजने का अनुरोध राम से करते हैं, लेकिन स्वयं सीता पत्नी धर्म निभाते हुए मना कर देती हैं। केवट नौका लेकर आता है, लेकिन श्रीराम को देख कर वह उन्हें अपनी नौका में बिठाने से मना कर देता है, क्योंकि वह श्रीराम के चरणों की महिमा से भली-भांति परिचित था, कि एक शिला उनके चरण स्पर्श से सुंदर नारी बन गई थी। वह वास्तव में श्री राम की महिमा को जान चुका था और बहाने से उनका चरणामृत पीना चाहता है। वह श्री राम के चरणों को धोकर उस जल का पान करता है। केवट सभी को अपनी नौका में बिठा कर नदी पार करा देता है। सीता श्री राम को उतराई के बदले में देने के लिए अपनी अंगूठी देती है, जिसे केवट यह कह कर ठुकरा देता है कि श्री राम भी एक केवट हैं, जो सबके भवसागर से पार लगाते है, तो वह उनसे उतराई कैसे ले सकता है। केवट प्रभु राम के चरणों में गिर कर कहता है कि एक दिन वो उनके घाट पर आयेगा तब वे उसे भवसागर पार करा दें, यही उसकी उतराई होगी। श्री राम, लक्ष्मण, सीता और निषादराज तीर्थराज प्रयाग में भारद्वाज मुनि के आश्रम पहुँचते हैं। श्री राम के वनवास से व्यथित भारद्वाज मुनि श्री राम को अपने आश्रम रहने का आमंत्रण देते हैं। लेकिन श्री राम जानते हैं कि अयोध्या प्रयागराज के समीप है, इसलिए अयोध्यावासी कभी भी वहाँ आ सकते हैं। वह भारद्वाज मुनि से कोई अन्य एकांत स्थान पूछते हैं। मुनिवर उन्हें चित्रकूट जाने का परामर्श देते हैं। चित्रकूट एक अत्यन्त पावन स्थान है जहाँ यमुना पार करके जाना है और कोई नाव भी नहीं है। निषादराज और लक्ष्मण मिलकर बाँसों का एक बेड़ा तैयार करते हैं। श्री राम यहाँ से भरत के समान प्रिय अपने मित्र निषादराज को वापस भेज देते हैं, जिसे भारी मन से निषादराज स्वीकार करते हैं। लक्ष्मण बेड़े को यमुना पार ले जाने के लिये खेते हैं।

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  • SHRI RAM AUR NISHD RAJ BHENT
    2025/10/13
    महर्षि वशिष्ठ द्वारा सीता को राजसी वेश में वनवास की अनुमति दिए जाने पर दशरथ भावुक हो उठते हैं। वे सीता से कहते हैं कि उन्होंने राजा जनक से वचन दिया था कि उनकी पुत्री जहाँ भी रहेगी, राजरानी के समान रहेगी। लेकिन सीता अपने ससुर और गुरू से क्षमा मांगते हुए स्त्रीधर्म निभाने की इच्छा प्रकट करती हैं और कहती है कि वह वन में भी पति के साथ वही सरल और समर्पित जीवन जीना चाहती हैं। मंथरा अवसर देखकर कुटिलतापूर्वक सीता को तपस्विनी वस्त्र पहनाने आती है और उनसे राजसी वस्त्र व आभूषण उतारने का आग्रह करती है। लेकिन गुरुमाता (वशिष्ठ की पत्नी) इसे अपशगुन मानते हुए रोक देती हैं। अतः सीता आभूषणों के साथ तपस्विनी वस्त्र धारण करती हैं। राजा दशरथ सीता को जोगन वेश में देख कर विचलित हो जाते हैं, उनका हृदय छलनी हो जाता है। कैकेयी उनकी स्थिति बिगड़ते देख राम से तुरंत राजमहल छोड़ने को कहती है। वहीं, दशरथ चुपचाप सुमन्त को भेजते हैं ताकि वे राम को रथ में बैठा कर कुछ दिन बाद मना कर वापस ला सकें। जब राम रथ पर सवार होकर नगर से बाहर निकलते हैं, तो समूची अयोध्या उनके पीछे चल पड़ती है। प्रजा विद्रोह के स्वर उठाती है। राम के समझाने पर वे शांत तो होते हैं, पर पीछे हटते नहीं। दशरथ पुत्रमोह में व्याकुल होकर “राम! राम!” पुकारते हुए बाहर निकलते हैं और भूमि पर गिर पड़ते हैं। वे क्रोध में कैकेयी का परित्याग करने की बात कहते हैं और भरत के लिए तर्पण का अधिकार भी छीनने की घोषणा करते हैं। यह दृश्य जितना अयोध्या की सड़कों पर आर्तनाद का है, उतना ही महल के भीतर मौन त्याग का भी है। वहाँ उर्मिला है, जो न रो सकती है, न रोक सकती है। वह पति लक्ष्मण से किए वचन से बंधी है, और उसी वचन की छाया में उसका त्याग पूरी रामायण में अकथ ही रह जाता है। अंत में, राम सहित सभी तमसा नदी के तट पर पहुँचते हैं। राम प्रजाजनों से वापस लौट जाने की विनती करते हैं, पर प्रजा लौटने को तैयार नहीं होती। रात्रि का विश्राम वहीं होता है – धरती की गोद में, आकाश की छाया में, त्याग और धर्म के साक्षी उस तमसा तट पर। सभी के सो जाने पर श्री राम सोते हुए अयोध्यावासियों को प्रणाम करके सीता जी, लक्ष्मण और आर्य सुमंत के साथ चुपचाप तमसा तट छोड़ देते है और कौशल राज्य की सीमा पर स्थित निषादराज की नगरी श्रृंगवेरपुर में...
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