『SHRI RAM AUR NISHD RAJ BHENT』のカバーアート

SHRI RAM AUR NISHD RAJ BHENT

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महर्षि वशिष्ठ द्वारा सीता को राजसी वेश में वनवास की अनुमति दिए जाने पर दशरथ भावुक हो उठते हैं। वे सीता से कहते हैं कि उन्होंने राजा जनक से वचन दिया था कि उनकी पुत्री जहाँ भी रहेगी, राजरानी के समान रहेगी। लेकिन सीता अपने ससुर और गुरू से क्षमा मांगते हुए स्त्रीधर्म निभाने की इच्छा प्रकट करती हैं और कहती है कि वह वन में भी पति के साथ वही सरल और समर्पित जीवन जीना चाहती हैं। मंथरा अवसर देखकर कुटिलतापूर्वक सीता को तपस्विनी वस्त्र पहनाने आती है और उनसे राजसी वस्त्र व आभूषण उतारने का आग्रह करती है। लेकिन गुरुमाता (वशिष्ठ की पत्नी) इसे अपशगुन मानते हुए रोक देती हैं। अतः सीता आभूषणों के साथ तपस्विनी वस्त्र धारण करती हैं। राजा दशरथ सीता को जोगन वेश में देख कर विचलित हो जाते हैं, उनका हृदय छलनी हो जाता है। कैकेयी उनकी स्थिति बिगड़ते देख राम से तुरंत राजमहल छोड़ने को कहती है। वहीं, दशरथ चुपचाप सुमन्त को भेजते हैं ताकि वे राम को रथ में बैठा कर कुछ दिन बाद मना कर वापस ला सकें। जब राम रथ पर सवार होकर नगर से बाहर निकलते हैं, तो समूची अयोध्या उनके पीछे चल पड़ती है। प्रजा विद्रोह के स्वर उठाती है। राम के समझाने पर वे शांत तो होते हैं, पर पीछे हटते नहीं। दशरथ पुत्रमोह में व्याकुल होकर “राम! राम!” पुकारते हुए बाहर निकलते हैं और भूमि पर गिर पड़ते हैं। वे क्रोध में कैकेयी का परित्याग करने की बात कहते हैं और भरत के लिए तर्पण का अधिकार भी छीनने की घोषणा करते हैं। यह दृश्य जितना अयोध्या की सड़कों पर आर्तनाद का है, उतना ही महल के भीतर मौन त्याग का भी है। वहाँ उर्मिला है, जो न रो सकती है, न रोक सकती है। वह पति लक्ष्मण से किए वचन से बंधी है, और उसी वचन की छाया में उसका त्याग पूरी रामायण में अकथ ही रह जाता है। अंत में, राम सहित सभी तमसा नदी के तट पर पहुँचते हैं। राम प्रजाजनों से वापस लौट जाने की विनती करते हैं, पर प्रजा लौटने को तैयार नहीं होती। रात्रि का विश्राम वहीं होता है – धरती की गोद में, आकाश की छाया में, त्याग और धर्म के साक्षी उस तमसा तट पर। सभी के सो जाने पर श्री राम सोते हुए अयोध्यावासियों को प्रणाम करके सीता जी, लक्ष्मण और आर्य सुमंत के साथ चुपचाप तमसा तट छोड़ देते है और कौशल राज्य की सीमा पर स्थित निषादराज की नगरी श्रृंगवेरपुर में...
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