• Nietzsche का नास्तिक दर्शन || The Anti-Christ (5) || साधुओं की नैतिकता बकवास
    2023/05/25
    धर्म और नैतिकता का यथार्थ से कोई नाता नहीं. इनकी शब्दावली पर ज़रा गौर करिए- परमात्मा, आत्मा, पाप, पुण्य, कर्म, संसार -माया, लोक- परलोक. एक पूरी काल्पनिक दुनिया बन कर तैयार हो गई. अगर कोई इस संस्कृति में बचपन से नहीं पला बढ़ा तो हवा भी न लगेगी की किन चीज़ों की बात हो रही है. भोजन, प्रजनन, प्रतिस्पर्धा जैसी चीज़ें बच्चों को सिखानी नहीं पड़ती. वैसे ही common sense भी कोई सिखाने वाली चीज नहीं, लेकिन इस विशेष धार्मिक शब्दावली को ज़बरदस्ती बच्चों के दिमाग में ठूसना पड़ता है. अगर एक सौ साल धार्मिक शिक्षा न दी जाए तो लोग ये पूरी धार्मिक भाषा भूल जाएंगे, पर common sense फिर भी बचा रहेगा – तर्क और बुद्धि हर मानव को जन्म से विरासत में मिलती है, सिखानी नहीं पड़ती. लोक अक्सर दिन में सपने देखने वालों, ख्याली पुलाव बनाने वालों पर हँसते हैं, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है की ऐसे दिवास्वप्न देखने वाले मुंगेरी लाल भी मज़हबी दुनिया में जीने वालों से बेहतर हैं? सपने reality को और मनोरम बनाने,  जीवन को और सुंदर बनाने की आस से निकलते हैं. लेकिन धर्म reality यथार्थ को नकारना और झुठलाना चाहते हैं. आपसे कहते हैं की ये दुनिया हमारे लायक़ है ही नहीं, सच्ची दुनिया धार्मिक दुनिया है. धर्म के बाबा संसारी दृष्टि को नीची नज़र से देखते हैं. धार्मिक दृष्टि में कुछ स्वाभाविक नहीं. कुछ प्रकार की प्राकृतिक प्रवृत्तियों को साधु लोग मानव मन से ठोक- पीट कर बाहर निकाल देना चाहते हैं.  ये सिखाते हैं की जानवरों वाली प्रवृत्तियां त्याग दीजिये. हिंसा करने की इच्छा, क्रूरता, ईर्ष्या, ठरक, दूसरों को हराने की लालसा, पड़ोसी का दमन करने की इच्छा साधु जन छुड़वा देना चाहते हैं. ये चाहते हैं की हर मानव प्रेम स्वरूप बन जाए. करुणा और परोपकार को, और जीव मात्र की सेवा को अपने जीवन का आदर्श बना लें. पर क्यों भाई? किसी बाघ को करुणा समझाने से क्या लाभ होगा? और बाघ समझ जाए तो उस पर कैसा प्रभाव पड़ेगा? आदमी ठरकी, ईर्ष्यालु और लालची नहीं हो सकता? बेचारा मानव. आखिर ठहरा तो एक जानवर ही. साधु बाबाओं की इन धार्मिक शिक्षाओं के बोझ तले दबा जा रहा है. खुद से भाग रहा है. Youtube पर जानवरों के वीडियो देख कर अपना मन बहला रहा है. खुद को समझा रहा है की आदमी होने के नाते वह जानवरों की तरह स्वाभाविक नहीं हो सकता. अगर ठरक आए तो छुपा लीजिये, ईर्ष्या और ...
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  • Nietzsche का नास्तिक दर्शन || The Anti-Christ (5) || साधुओं का अध्यात्म बकवास
    2023/05/23
    धर्म बाबाओं को और अधिक विनम्र होने की ज़रूरत है. हम मानवों की स्थिति इस सृष्टि  इस universe में क्या है? बाबा जन की मान लें तो हम स्वयं परमात्मा स्वरुप-परम ब्रह्म हैं, बस अहंकार दूर करने की देर है. जिसने अहंकार त्याग दिया परमात्मा से एक हो गया. लेकिन ये सब कहने का आधार क्या है? मानव चेतना/ consciousness- जिसका जाप बाबा लोग दिन रात करते हैं, दरअसल क्या चीज है? आइए गहराई से देखते हैं- सबसे निचले तबके के जीव- कीड़े-मकोड़े और microbes  मशीन की तरह चलते हैं. दार्शनिक Descartes ने जानवरों को एक प्रकार की biological  मशीन कहा है, क्योंकि वे निर्धारित गति से अपने आप सृष्टि के नियमों के अनुरूप पैदा हो रहे हैं, भोजन कर रहे हैं, खुद को बचा रहे हैं और प्रजनन कर अपना वंश बढ़ा रहे हैं. लेकिन क्या मानव भी नियम से चलने वाले मशीनों की तरह हैं? Biologically/जैविक दृष्टि से तो डॉक्टर यही बताते हैं- मानव शरीर बिना इच्छा शक्ति का प्रयोग किए अपने आप चलता है। लेकिन क्या psychologically भी, मानव बुद्धि को नियम से चलने वाली एक मशीन माना जा सकता है क्या? कोई धर्म बाबा तो ये मानने को तैयार नहीं होगा. हालांकि, इस बात से वे भी इंकार नहीं कर सकेंगे की मनोविज्ञान भी causation से बंधा हुआ है- अकारण कुछ नहीं होता। विचार अपने आप शून्य से उत्पन्न नहीं होते, इनके भी कारण होते हैं. लेकिन धर्म शास्त्री ये सब जानते हुए भी मान नहीं सकेंगे की हमारे विचारों पर हमारा नियंत्रण नहीं. धर्म का काम ज़िम्मेदारी स्थापित करना है, ताकि कुछ लोगों को पापी और कुछ को धार्मिक घोषित किया जा सके. ये आपको बताएंगे की आप अपने विचारों के पैदा होने के लिए खुद ज़िम्मेदार हैं. हम अपनी मर्ज़ी से अपनी इच्छाएं पैदा करते हैं. और चाहें तो अपनी मर्ज़ी से उन्हें बदल भी सकते हैं. तभी तो बाबा जी इच्छाओं को काबू करना और बदलना सिखलाते हैं.  गलत विचारों की सही से अदला बदली करना सिखाते हैं. भक्तों से कहते हैं की तुमने ही मन पर काबू नहीं किया, नहीं तो तुम भी मेरी तरह साधु होते, धार्मिक कहलाते। और हम अधर्मी क्या मानते हैं? हमारी दृष्टि आधुनिक मनोविज्ञान से प्रेरित है। जिसे लोग will power, इच्छा शक्ति कहते हैं, वह भी दूसरे मनोभावों की तरह ही एक मनोभाव है. लेकिन ये मान लेने का कोई कारण नहीं की अपना will power हम खुद अंदर कहीं पैदा करते हैं, और मनचाहे उसे बदल भी सकते हैं. हम ये मानते हैं की ...
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  • Nietzsche का नास्तिक दर्शन || The Anti-Christ (4) || सत्संग और प्रवचन बेकार
    2023/05/21
    एक धार्मिक प्रवचन और philosophical व्याख्यान में क्या अंतर है? धर्म गुरु कौन सा ऐसा काम करते हैं जो एक दार्शनिक- philosopher के लिए वर्जित है? इसको ठीक से समझ लीजिये. एक दार्शनिक हमेशा आपकी तर्क और बुद्धि से संवाद करता है, लेकिन धर्म गुरु ज़रूरत पड़ने पर आपसे अपने common sense को तिलांजलि दे देने के लिए कहते हैं. तर्क का सहारा धर्मगुरु नहीं लेते ऐसी बात नहीं, लेकिन अंतिम अवस्था में विशेष मुद्रा और वस्त्र पहने बाबाजी आप को डांट देंगे, कहेंगे कुछ बातें समझी नहीं जा सकती, बस मान ली जाती हैं. और मनवाने का विशेष अधिकार उनको है जो साधु बने हुए हैं. लेकिन किसी की बात कोई क्यों सुने? और सुनना चाहे भी, तो माने कैसे? क्या उसूल और नैतिकता कपड़ों की तरह पहने और उतारे जा सकते हैं? क्या सृष्टि के मर्म में कोई नैतिकता, कोई सदाचार का छुपा है, जिसे सभी मानवों को स्वीकार कर लेना ज़रूरी है? धर्म के पंडे ऐसा ही मनवाना चाहते हैं– एक अच्छा, सदाचारी इंसान कैसा हो? क्या इसका formula अंतरिक्ष या धर्म ग्रंथों में कहीं छुपा हुआ है, और ये साधु बाबा इसके expert हैं? हम ऐसा नहीं मानते. उसूल का संबंध एक इंसान के मर्म से होता है, उसकी मनोवैज्ञानिक संरचना से होता है. जो सही लगता है, लगता है, हम नहीं मानते की ये शिक्षा और प्रवचन से बदल देने योग्य कोई चीज है. उसूल वही सच्चे होते हैं जो निजी ज़रूरत, अंतरात्मा की  बाध्यता से निकलते हों. केवल सम्मान, श्रद्धा या भक्ति के कारण बनाए उसूल जीवन के लिए हानिकारक हैं. सही गलत के मापदंड हमेशा निजी होते हैं. कर्तव्य या फर्ज़ समझकर उसूल थोपने पर जीवन का पौधा मुरझा जाता है. ऐसा कोई कर्तव्य नहीं जो सभी के लिए हमेशा सही हो. ये बात धर्म गुरु कभी स्वीकार नहीं कर सकते. जीवन की प्रगति और उन्नति के लिए क्या ज़रूरी है? की हर मानव अपने उसूल खुद बनाए, अपने सही गलत के पैमाने खुद तय करे. किसी जन समूह, किसी राष्ट्र की जीवंतता, ऊर्जा और रचनात्मकता/creativity जड़ से खत्म करने का सबसे पुख्ता तरीका जानते हैं? – सबको एक जैसा बन जाने के लिए बाध्य या प्रेरित करना. अपनी सृजनशक्ति और उर्वरता, तथा जीवन का हर आनंद अगर समाप्त कर देना चाहते हैं, तो साधु बाबा का मार्ग बिलकुल सटीक है – किसी दिव्य या आसमानी नैतिकता को अपना लीजिये और उसका अक्षरशः पालन करिए, चाहे आपकी आत्मा रोज़ विद्रोह करती हो, चाहे आपका ...
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  • Nietzsche का नास्तिक दर्शन || The Anti-Christ (3) || मुल्ले और पंडे मानवता के दुश्मन
    2023/05/19
    मुल्लों और पंडो से मेरी दुश्मनी मुझे साधुओं और धर्म शास्त्रियों से क्या शिकायत है? जिसने इनको भोगा है वही समझ सकता है। ये कोई मज़ाक की बात नहीं। न जाने कितनी ज़िंदगियाँ इनके चक्कर में बर्बाद हो गईं । हंसी तो तब आती है जब खुद को वैज्ञानिक और free thinker कहने वाले भी इन बाबाओं के चरणों में लोटते नज़र आते हैं। मैं जिस चीज की बात कर  रहा हूँ उसे ठीक से पहचानिए। बाबागीरी की बीमारी केवल साधुओं और पंडितों में नहीं पाई जाती। मैं idealists- खुद को आदर्शवादी समझने वालों को भी इसी श्रेणी में रखता हूँ। ऐसे सारे लोग जिनको लगने लगे की उनका जन्म इस संसार में वास करने के लिए नहीं हुआ है- ये जन्म, मृत्यु, संसार, मुक्ति और निर्वाण जैसे गंभीर विषयों पर मनन चिंतन करते दिखाई देंगे। साधारण बातें छोड़ कर हमेशा किसी बड़े आदर्श की बात करेंगे, दूर किसी क्षितिज पर अपनी निगाहें टिकाए रखेंगे। ऐसे विशेष गूढ सिद्धांतों और concepts की बातें करेंगे जो रोजमर्रा की ज़िंदगी से कोसों दूर हों। इनके अनुसार संसारी चिंताऐं केवल हम जैसे साधारण लोगों के लिए हैं। महान साधु बाबा केवल ऐसी बड़ी-बड़ी बातों पर चिंतन करते हैं जिनका हमारे संसार से कोई लेना-देना नहीं। आम मानवों के मनोभावों को ये माया जाल समझते हैं। हर मानवी भावुकता से बचते फिरने की सीख देते हैं। हम कहते हैं की मिथ्या चेतना और माया की बात झूठ है। धर्म के पंडों का विनाशकारी झूठ। इस लोक को छोड़ कर किसी दूसरे लोग, किसी और संसार की बात करना धर्म-मजहब का सबसे बड़ा पाप है। धर्म के पंडे दिन-रात जीवन और संसार को विषैला बनाने का उपक्रम करते हैं। मुल्ले और पंडों का असली पेशा है- जिंदगी को बदनाम करना, इस लोग को छोड़कर किसी और लोग की बात करना। सबसे अधिक आश्चर्य तो तब होता है जब इन्हीं धर्म के महंतों को दिन-रात सत्य, सत्य की तलाश आदि की बातें करते सुनता हूँ। सामने जो यथार्थ है उसे छोड़ कर दूसरे लोकों, अलौकिक लक्ष्यों की बात करने वाले सत्य के बारे में कुछ नहीं जानते, और न कभी जान सकेंगे। संसार का त्याग इनका प्रमुख नारा है। ये हिमायती हैं अस्तित्व को नकारने के, संसार को छोड़कर, नगण्य बन जाने के, जीना छोड़ कर मर जाने के, सब कुछ से, कुछ नहीं बन जाने के। साधु वृत्ति से बड़ा जीवन का शत्रु और कोई नहीं । बाबागीरी का कीड़ा दृष्टि को विकृत और मिथ्यावादी ...
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  • Fredrich Nietzsche का 'The Anti-Christ' (हिन्दी में) - 2
    2023/05/16
    ये किताब नहीं एक यात्रा है. ये मार्ग सुगम नहीं है. इस पर सब नहीं चल सकते. मेरे साथ चलने की शर्ते जान लीजिये- मुझे ऐसे श्रोता चाहिए जो आध्यात्मिक मामलों में ईमानदार हों, कट्टर ईमानदार, वर्ना आप मेरी गंभीरता और जूनून नहीं झेल पाएंगे. मुझे चाहिए पर्वत की चोटियों पर वास करने वाले श्रोता, जो अपने तर्क और बुद्धि से परे कोई सत्ता स्वीकार न करते हों- जिनके लिए राजनैतिक हित, राष्ट्रीय स्वार्थ जैसे क्षणभंगुर मुद्दे तुच्छ और त्याज्य हों. मुझे ऐसे बेफिक्र सत्यार्थी ही सुनें जिनके लिए ये सवाल ही पैदा नहीं होता की सच सुन कर क्या फायदा होगा. जो सत्य का शोध करने के लिए कोई भी मूल्य चुकाने को तैयार हों. ये ऐसे साहसी व्यक्तियों के शौक हैं- जो आदि हों ऐसा हर द्वार खटखटाने के, जिस पर प्रवेश निषेध का board टंगा हो, जो किसी भूल- भुलईया में प्रवेश करने में रत्ती भर भी संकोच न करते हों. जो एकांतवासी हों, जिनके कान हमेशा किसी नए संगीत, किसी नई धुन की तलाश में रहते हों. जिनकी निगाहें क्षितिज पर टिकी हो, जिनके अंतःकरण में ऐसे सत्यों के लिए जगह हो जिनको कभी सुना ही न गया, या दबा दिया गया. और सबसे ज़रूरी – ऐसे श्रोता जिनमें योद्धाओं सा सहज़ भाव हो, जो तपती धूप में भी अपना पौरुष और उत्साह न खोएं – जो खुद का सम्मान करना जानते हों, जो खुद से प्रेम करना जानते हों, जो आज़ाद ख्याली, बेशर्त, बेखौफ़ आज़ाद ख्याली के आदि हों. अगर ये सब आप हैं, तो ये मार्ग आपके लिए है, आप हैं वो श्रोता जिनकी मुझे तलाश रही है, बल्कि मैं तो ये मानता हूं की आपका और मेरा मिलना हमारी नियति थी.. और बाकियों का क्या? जो इस मार्ग पर चलने को तैयार नहीं? मेरे लिए वे सिर्फ जनसंख्या हैं- हमें बाकि मानवता से बहुत ऊपर उठने की ज़रूरत है, उन्नयन में और तिरस्कार में. सबसे पहले ये जान लीजिये की आधुनिक मानव जिसको प्रगति कहता है, वह मिथ्या अभिमान और आत्मसम्मोहन से अधिक कुछ नहीं. मानव ने बहुत कुछ बना लिया, बहुत कुछ ईजाद कर लिया, लेकिन उसकी बुद्धि आज भी जस की तस है. मैं मध्य युगीन मानव का आज भी आधुनिक मानव से अधिक सम्मान करता हूं. प्रगति और विकास एक ही चीज नहीं. विकास का आशय चीज़ों, वस्तुओं, कल-कारखानों से है. इनका मानव के उन्नयन, संवृद्धि या आत्म बल बढ़ने से कोई सीधा संबंध नहीं. हम बात कर रहे हैं महामानवों की, overmen, अतिमानवों ...
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  • Fredrich Nietzsche का 'The Anti-Christ' (हिन्दी में) -1
    2023/05/13
    प्रिय श्रोतागण, Nietzsche दर्शन की इस नई playlist में आपका स्वागत है. आज हम उनकी किताब the antichrist शुरू करने जा रहे हैं. मैं आपके सामने हिंदी अनुवाद first person में प्रस्तुत करूँगा.  इसलिए जब मैं ‘मैं’ बोलूं, आप समझें की Nietzsche बोल रहे हैं. तो आइये, बिना देर किए शुरू करें.   प्रस्तावना ये किताब सभी के लिए नहीं हैं. मैं समझता हूं की इस किताब को पढ़ने वाले अभी जीवित नहीं हैं. हालांकि जिन्होंने मेरी zarathustra पढ़ी हो, वे शायद मेरी बातें समझ सकें. लेकिन अधिकांश लोग ये सब सुनने को अभी तैयार नहीं. मैं मानता हूं की मेरे श्रोता कल के बाद वाले दिन आएंगे. कुछ लेखक मरने के बाद पैदा होते हैं. मैं जो आपसे कहने जा रहा है, उसको समझने की कुछ जरूरी शर्तें हैं। और साथ ही ये भी सच है की जो इन शर्तों को पूरा करते हैं वे इस किताब को अधूरा छोड़कर नहीं जा पाएंगे. 1.आगे बढ़ने से पहले आइए हम एक दूसरे के चेहरे देख लें. मैं कौन हूं? कहाँ खड़ा हूं? आधुनिक मानव को इसका कुछ पता नहीं. इस आधुनिकता ने हमें बीमार किया है- इसकी निष्क्रिय शांति, कायरतापूर्ण मध्य मार्ग, और ये आधुनिक हाँ और न की सदाचारी सड़ांध. ये सहिष्णुता जो सब कुछ समझती है, सब कुछ माफ़ कर देती है. हमें बर्फीले तूफ़ानों के बीच रहना मंजूर है  लेकिन इस आधुनिक सदाचार से हमारा कोई लेना देना नहीं. हममें अदम्य साहस भरा है, न हम खुद पर नरमी बरतते हैं और न औरों पर. लेकिन एक लंबे समय तक हमें पता तक नहीं था की अपने साहस का क्या करना है. हम दयनीय हो गए, लोग हमें नकारा-भाग्यवादी समझने लगे. हमारा भाग्य क्या था- प्राचुर्य, युद्ध, शक्ति और बल. हम प्यासे रहे हैं बिजली और गति के. जितना बन सका दुर्बलता और पराधीनता से बचते रहे हैं. हमारी हवाओं में एक तूफ़ान दफ़न था, हमारी भंगिमा पर एक कालिमा छाने लगी थी- क्योंकि हमारे सामने कोई पथ दृष्टिगोचर नहीं था. हमारी ख़ुशी का formula- एक हाँ, एक ना, एक सीधी रेखा, एक गंतव्य. 2. अच्छा क्या है? हर ऐसी चीज जो हमारी शक्ति बढ़ाती है, अच्छी है. शक्तिशाली होना अच्छा है. शक्तिशाली होने की इच्छा अच्छी है. बुरा क्या है- दुर्बलता से निकली हर चीज बुरी है. ख़ुशी क्या है- शक्ति का बढ़ना ख़ुशी है. प्रतिरोध पर विजय प्राप्त करना ख़ुशी है. संतोष नहीं! और ज्यादा शक्ति; शांति नहीं युद्ध; सदाचार नहीं दक्षता, सद्गुण नहीं निपुणता, शुचिता नहीं कौशल. जो दुर्बल और असफल ...
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  • कलाकार की दृष्टि II Nietzsche दर्शन
    2023/05/07
    प्रिय श्रोता गण, Nietzsche दर्शन के सातवें अंक में आपका स्वागत है. हम पहुंच चुके हैं twilight of the idols के chapter 7 तक. तो आइये बिना देर किए शुरू करते हैं. आज की चर्चा का विषय है, कलाकारों की दृष्टि- 1.   किसी चीज को, या किसी आदमी को कैसे देखा जाए? आज कल pulp psychologists की भरमार है.  हर कोई अपने आप को छोटा-मोटा मनोवैज्ञानिक समझ रहा है, psychology के tricks लगा रहा है. मैं कहता हूं की देखने की असली कला है देखने की कोशिश न करना. जब हम कुछ देखने, जानने- बूझने के लिए देखते हैं तो हमारी दृष्टि वही दिखलाती है जो हम पहले से जानते हैं. हमारी चेतना और स्मृति यथार्थ को बदल देती है, चीजों का परिवर्तित अलंकृत रूप हमारे सामने प्रस्तुत करती है. किसी experience को लेने की कोशिश उसे बर्बाद करने का सबसे पक्का तरीका है. खुद को कुछ experience करते देखने की कोशिश उस अनुभव का सर्वनाश कर देती है. Experience करने की लालसा अच्छी चीज़ों को भी विषाक्त कर देती है. स्वभाविक मनोवैज्ञानिक और कलाकार बिना कोशिश, effortlessly देखने की कला में माहिर होते हैं. ये यक़ीनन एक कला ही है जिसे अधिकांश लोग नहीं समझते. Effortlessly किसी चीज का अनुभव करना. 2.   अव्वल दर्जे के कलाकार प्रकृति को छापने या उसका अनुसरण करने की कोशिश नहीं करते. अच्छे कलाकार प्रकृति के खुद तक आने का इंतज़ार करते हैं. अनुभव ढूंढने के बजाय, उसके खुद तक पहुंचने की प्रतीक्षा करते हैं. कलाकार की प्रेरणा अपने आप को उसके सामने प्रस्तुत करती है. जतन से प्रेरणा बनाने की कोशिश परिपक्व कलाकार नहीं करते. नौसिखिए कलाकार नायाब और अजीब चीज़ों की तलाश में रहते हैं, चाहते हैं की प्रकृति से ढूंढ़ कर कोई ऐसी चीज निकालें जो पहले किसी ने न देखी हो, या फिर बहुत कम लोगों ने देखी हो. तभी इनकी कलाकृतियों का संग्रह किसी musuem अजायबघर की तरह लगता है- भानुमति का पिटारा- विचित्र चीज़ों का जमावड़ा. कचरा बीनने वाले भी ऐसे ही काम करते हैं-  रद्दी के ढेर में काम की चीज़ें तलाशते हैं. मैं इसे कला नहीं मानता. 3.   असली कलाकार के लिए कुछ रद्दी नहीं. क्योंकि नैसर्गिक कलाकार प्रकृति से बंधा नहीं होता. उसे अनुसरण करने, या photocopy उत्पादित करने में रुचि नहीं. ऐसे प्रकृति के सामने नतमस्तक कलाकार मुझे कमज़ोर, थके भाग्यवादी किस्म के लोग लगते हैं. हमारा कलाकार प्रकृति को मनचाहे तरीके के सजाता है, उसमें अपने मनभावन रंग भरता है; उसकी ...
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  • मानवता के tamers और breeders
    2023/05/05
    1.       दार्शनिक को अच्छे और बुरे से परे ही खड़ा होना चाहिए, a philosopher must take his stand beyond good and evil. मेरा ये आग्रह है की हम जिसको नैतिकता कहते हैं उसका सही और गलत, अच्छे या बुरे से कोई ज्यादा लेना देना नहीं. मैं नैतिकता को group norms, community values, हमारे सामाजिक preferences के रूप में समझता हूं. नैतिकता को संस्कृति या संस्कार के रूप में समझना ज्यादा लाभप्रद लगता है. किसी समुदाय या राष्ट्र की नैतिकता सही गलत से अधिक हमको उसको preferences, choices, मूल्यों और उसूलों के बारे में बतलाती है.  नैतिकता को सही गलत से जोड़ना एक गलतफहमी है, लेकिन ये गलतफहमी ज़रूरी भी है; ये गलतफहमी ही तो नैतिकता में आस्था का आधार है. हमें लगता है की हम अच्छे और सही के साथ हैं तभी तो हम अपने नैतिक मूल्यों में श्रद्धा रखते हैं. किसी समाज से ये पूछना की वह अपने सही और गलत के माप दंड कैसे तय करता है व्यर्थ है. क्योंकि जो कारण बताए जाते हैं, अकसर उनका असली कारणों से कोई मेल नहीं होता. Morality के कारण ढूंढना व्यर्थ है. उसे तो संस्कृति, जीवन शैली की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए. कुछ अपने आप में गलत नहीं होता, संस्कृतियों की दृष्टि से सही गलत तय होता है. 2.       आइये अब देखते हैं की नैतिकता कैसे काम करती है.  इसके कार्य करने की दो प्रकार की शैलियों का अभी जिक्र करूँगा- एक तरफ Christian नैतिकता है जो मानव के tamer/आदमी को पालतू बनाने की मुहिम है. वहीं भारत की मनुवादी नैतिकता चार अलग-अलग नस्लों के मानव breed करने की व्यवस्था है. Taming और breeding जैसे शब्द सुनकर शायद आपको बुरा लगे. क्या कोई मानवों के लिए ऐसे भोंडे शब्दों का इस्तेमाल करता है? लेकिन जो है सो है. मध्य युगीन चर्च मानव को tame करने की ही मुहिम थी. हालांकि वे इसे सुधारना कहते रहे. इनके अनुसार मानव पापी पैदा होते हैं, इसलिए उनको christian नैतिकता द्वारा tame करने की ज़रूरत है. मैं पूछता हूं की जब हम किसी जंगली घोड़े को पकड़ कर अपना पालतू बनाते हैं तो उसके जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ता है? एक जंगली पशु के पालतू बनाये जाने को सुधार कहने की बात सुनकर हंसी नहीं आती? Circus में जानवर कैसे सुधारे जाते हैं? पालतू बनाने के लिए जानवर को कमज़ोर किया जाता है, निरीह बनाया जाता है. कभी भय से, कभी पीढ़ा और चोट से, कभी घायल कर, कभी भूख से उसकी लड़ने और प्रतिरोध करने की शक्ति को तोड़ा जाता है. पालतू बनना एक type की permanent बीमारी से ...
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