
अर्जुनविषादयोग: कर्तव्य और आत्मज्ञान
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''अध्यात्मिक प्रबोधन:गीता के 18 योग'' श्रृंखला पुस्तक की दूसरा भाग है अर्जुनविषादयोग । अर्जुनविषादयोग श्रीमद्भगवत गीता का प्रथम अध्याय है । कुरुक्षेत्र के रणभूमि में जब युद्ध का संकल्प पंडवों और कौरवों के मनों में प्रतिबिम्बित होने लगा, अर्जुन को मानवीय संदेह और आंतरिक द्वंद्व ने घेर लिया। वह अपने स्वजनों को सामने हेते ही ह्रदयशून्य हो गया और शास्त्रों का सार—धर्म, कर्म, भक्ति, और ज्ञान—उस समय भी संसार की भूलभुलैया के समान प्रतीत हुआ। यही वह क्षण है जब अर्जुनविषादयोग कर्मयोग, भक्ति योग, ज्ञान योग आदि मार्गों के प्रारंभिक सूत्रधार की भूमिका निभाता है। यह अध्याय गीता का पहला योग नहीं है—पर यह वही प्रथम द्वंद्व है जिससे आशाओं को दीपक की पहली लौ मिलती है।
यह एपिसोड श्रोताओं को गीता के मूल स्थर से जोड़ता है: एक ऐसा स्तर जहाँ धर्म का युद्ध बाहरी नहीं, आंतरिक है। अर्जुन का विषाद केवल भावनात्मक क्षणिका नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति की व्यथा है—जब मन नकारात्मकता में गिरता है और वह समझ खो बैठता है कि कर्तव्य क्या है।
यह एपिसोड दर्शाता है कि अर्जुन वास्तविक अर्थ में हम सभी की प्रतिनिधित्व करते हैं। जब जीवन जुड़ता है, कर्तव्य सोशल एक्सेप्टेंस से, रिश्ते अपेक्षा से, और आत्मा विस्मृति से, तब वह व्यक्ति अर्जुन की तरह सांवली राह चुनता है।
"क्या आपने कभी ऐसा अनुभव किया जब लक्ष्य स्पष्ट न हो, मन द्वंद्व में घिरा हो और निर्णय कारागार सा प्रतीत होता हो? अर्जुन ने वही महसूस किया— वही वह स्रोत भी है जहां जागृति आरंभ होती है।"
यहां तक कि आधुनिक जीवन में युवा जाति अपनी नसों में अर्जुन की असमंजस की गूंज सुन सकती है—करियर बनाम परिवार, सामाजिक दायित्व बनाम आत्मिक लक्ष्य, सफलता बनाम संतोष—यह सार है इस एपिसोड का ।
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