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BHAGWAT GITA

BHAGWAT GITA

著者: Janvi Kapdi
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このコンテンツについて

महाभारत युद्ध आरम्भ होने के ठीक पहले भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया वह श्रीमद्भगवद्गीता के नाम से प्रसिद्ध है। यह महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है। गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं।आज से (सन 2022) लगभग 5560 वर्ष पहले गीता जी का ज्ञान बोला गया था|488116 アート 文学史・文学批評
エピソード
  • आत्म संयम योग
    2024/07/30

    अध्याय 5 – आत्मसंयम योग (कर्म संन्यास और योग)1. संन्यास और कर्मयोग में अंतर

    • अर्जुन पूछते हैं: “हे कृष्ण! कर्म त्याग (संन्यास) श्रेष्ठ है या कर्मयोग (कर्म करते हुए योग)?”

    • कृष्ण बताते हैं:

      • संन्यास: दुनिया के कर्मों से मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग।

      • कर्मयोग: दुनिया में रहते हुए, अपने कर्तव्य को बिना आसक्ति किए निभाने का मार्ग।

    • निष्काम कर्मयोग संन्यास से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि इसमें मन और इन्द्रियाँ सक्रिय रहते हुए भी स्थिर रहती हैं।

    • योगी वही है जो इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण रखता है।

    • इच्छाओं और लालसा से मुक्त रहकर जो कर्म करता है, वह सच्चा योगी है।

    • संयमित मन और आत्मा की स्थिरता से जीवन में शांति और आनंद आता है।

    • सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय में समभाव रखना आवश्यक है।

    • फल की चिंता छोड़कर कर्म करना ही आत्मसंयम है।

    • ऐसा व्यक्ति संसार में रहते हुए भी मोक्ष के समान स्थिति में होता है।

    • आत्मसंयम योगी के लिए ज्ञान और भक्ति दोनों आवश्यक हैं।

    • ज्ञान से मन स्थिर होता है और भक्ति से कर्म पवित्र बनता है।

    • यह योग जीवन में संतुलन, स्थिरता और मोक्ष का मार्ग दिखाता है।

    • कर्मयोग और संन्यास में सत्य आत्मसंयम सर्वोच्च है।

    • इच्छाओं और इन्द्रियों पर नियंत्रण रखकर निष्काम भाव से कर्म करना ही योग है।

    • आत्मसंयम योगी दुनिया में रहते हुए भी मुक्त और शांत रहता है।

    आत्मसंयम योग हमें सिखाता है कि मन, इन्द्रियों और कर्म पर नियंत्रण ही सच्चा योग है। जब हम फल की चिंता छोड़े और अपने कर्तव्य को संयम और भक्ति भाव से निभाएँ, तभी हम जीवन में स्थिरता, शांति और मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।

    2. आत्मसंयम और मन का नियंत्रण3. समभाव और निष्काम कर्म4. ज्ञान और भक्ति का संबंधमुख्य संदेशसारांश


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    26 分
  • Gyan karm sanyas yog
    2023/08/02

    अध्याय 4 – ज्ञान कर्म संन्यास योग1. गीता ज्ञान की परंपरा

    श्रीकृष्ण बताते हैं कि यह योग अमर है।

    • पहले सूर्यदेव (विवस्वान) को, फिर मनु को, और उसके बाद राजऋषियों को यह ज्ञान दिया गया।

    • समय के साथ यह परंपरा लुप्त हो गई, इसलिए अब कृष्ण स्वयं अर्जुन को वही दिव्य ज्ञान प्रदान कर रहे हैं।

    कृष्ण कहते हैं:

    • “जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अवतार लेता हूँ।”

    • धर्म की रक्षा और अधर्म का नाश करना ही भगवान के अवतरण का उद्देश्य है।

    • वे जन्म और कर्म से दिव्य हैं—उन्हें जानने वाला मोक्ष को प्राप्त होता है।

    • केवल कर्म ही नहीं, केवल संन्यास भी नहीं—बल्कि ज्ञानयुक्त कर्म ही श्रेष्ठ है।

    • यज्ञ भावना से किया गया कर्म पवित्र बन जाता है।

    • कर्म को जब ईश्वर और समाज के कल्याण के लिए किया जाता है, तो वह बंधनकारी नहीं रहता।

    कृष्ण विभिन्न यज्ञों का उल्लेख करते हैं:

    • ज्ञान यज्ञ

    • तपस्या यज्ञ

    • इन्द्रिय संयम यज्ञ

    • दान यज्ञ
      इनमें सबसे श्रेष्ठ ज्ञान यज्ञ है—क्योंकि ज्ञान से ही सब कुछ प्रकाशित होता है।

    • अज्ञान से मनुष्य मोह और बंधन में फँसता है।

    • ज्ञान सूर्य के समान है, जो अज्ञान के अंधकार को मिटा देता है।

    • गुरु की शरण लेकर, प्रश्न पूछकर और सेवा से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

    • भगवान समय-समय पर अवतार लेकर धर्म की स्थापना करते हैं।

    • ज्ञान और कर्म का संतुलन ही वास्तविक योग है।

    • यज्ञ और तपस्या से भी ऊपर है ज्ञान यज्ञ

    • गुरु से प्राप्त सच्चा ज्ञान ही अज्ञान को नष्ट करके आत्मा को मुक्त करता है।

    ज्ञान कर्म संन्यास योग हमें सिखाता है कि जीवन में केवल कर्म या केवल त्याग नहीं, बल्कि ज्ञानयुक्त कर्म ही मुक्ति का मार्ग है। जब हम ईश्वर को समर्पित होकर कर्म करते हैं और गुरु से प्राप्त ज्ञान को आत्मसात करते हैं, तब जीवन बंधनमुक्त और पूर्ण हो जाता है।

    2. अवतार का रहस्य3. कर्म और ज्ञान का संतुलन4. यज्ञ के विविध रूप5. ज्ञान का महत्वमुख्य संदेशसारांश


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    13 分
  • Karm yog
    2022/08/10

    अध्याय 3 – कर्म योग (निष्काम कर्म का योग)1. अर्जुन का प्रश्न

    अर्जुन पूछते हैं – “हे कृष्ण! यदि ज्ञान (सांख्य) को श्रेष्ठ मानते हैं, तो मुझे युद्ध (कर्म) के लिए क्यों प्रेरित करते हैं?”
    यहाँ अर्जुन का भ्रम है कि क्या केवल ज्ञान ही मोक्ष का मार्ग है या कर्म भी आवश्यक है।

    कृष्ण स्पष्ट करते हैं:

    • केवल कर्म-त्याग से मुक्ति नहीं मिलती।

    • हर कोई कर्म करने को बाध्य है, क्योंकि प्रकृति हमें कर्म करने के लिए प्रेरित करती है।

    • बिना कर्म किए जीवन असंभव है—even शरीर का निर्वाह भी कर्म से ही होता है।

    • मनुष्य को अपना कर्तव्य करना चाहिए, लेकिन फल की आसक्ति छोड़कर।

    • कर्म न करने पर समाज में अव्यवस्था फैल जाएगी।

    • श्रेष्ठ पुरुष को चाहिए कि वह स्वयं भी कर्म करे और दूसरों को प्रेरित करे।

    • कर्म को यज्ञ भाव से करना चाहिए—अर्थात ईश्वर के लिए समर्पित भाव से।

    • यज्ञ से देवता प्रसन्न होते हैं, और प्रकृति संतुलित रहती है।

    • स्वार्थी कर्म बंधन लाते हैं, जबकि यज्ञभाव कर्म मुक्ति दिलाते हैं।

    • मनुष्य के पतन का सबसे बड़ा कारण काम (अत्यधिक इच्छा) और उससे उत्पन्न क्रोध है।

    • यह आत्मा का शत्रु है, इसलिए इसे वश में करना आवश्यक है।

    • इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण रखकर ही व्यक्ति इच्छाओं को जीत सकता है।

    • केवल ज्ञान या केवल कर्म पर्याप्त नहीं, बल्कि निष्काम भाव से कर्म ही सर्वोच्च मार्ग है।

    • कर्म करते हुए भी मनुष्य ईश्वर को समर्पित भाव से रहे तो वह बंधन से मुक्त हो जाता है।

    • इच्छाओं और क्रोध पर नियंत्रण ही सच्चे योग का आधार है।

    कर्म योग हमें यह सिखाता है कि जीवन का हर कार्य हमें कर्तव्यभाव और समर्पण के साथ करना चाहिए। जब हम फल की आसक्ति छोड़कर कर्म करते हैं, तो वही कर्म योग है—और यही मुक्ति का मार्ग है।

    2. कृष्ण का उत्तर3. कर्म का महत्व4. यज्ञ भावना5. काम और क्रोधमुख्य संदेशसारांश


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    14 分
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