Gyan karm sanyas yog
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अध्याय 4 – ज्ञान कर्म संन्यास योग1. गीता ज्ञान की परंपरा
श्रीकृष्ण बताते हैं कि यह योग अमर है।
पहले सूर्यदेव (विवस्वान) को, फिर मनु को, और उसके बाद राजऋषियों को यह ज्ञान दिया गया।
समय के साथ यह परंपरा लुप्त हो गई, इसलिए अब कृष्ण स्वयं अर्जुन को वही दिव्य ज्ञान प्रदान कर रहे हैं।
कृष्ण कहते हैं:
“जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अवतार लेता हूँ।”
धर्म की रक्षा और अधर्म का नाश करना ही भगवान के अवतरण का उद्देश्य है।
वे जन्म और कर्म से दिव्य हैं—उन्हें जानने वाला मोक्ष को प्राप्त होता है।
केवल कर्म ही नहीं, केवल संन्यास भी नहीं—बल्कि ज्ञानयुक्त कर्म ही श्रेष्ठ है।
यज्ञ भावना से किया गया कर्म पवित्र बन जाता है।
कर्म को जब ईश्वर और समाज के कल्याण के लिए किया जाता है, तो वह बंधनकारी नहीं रहता।
कृष्ण विभिन्न यज्ञों का उल्लेख करते हैं:
ज्ञान यज्ञ
तपस्या यज्ञ
इन्द्रिय संयम यज्ञ
दान यज्ञ
इनमें सबसे श्रेष्ठ ज्ञान यज्ञ है—क्योंकि ज्ञान से ही सब कुछ प्रकाशित होता है।
अज्ञान से मनुष्य मोह और बंधन में फँसता है।
ज्ञान सूर्य के समान है, जो अज्ञान के अंधकार को मिटा देता है।
गुरु की शरण लेकर, प्रश्न पूछकर और सेवा से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
भगवान समय-समय पर अवतार लेकर धर्म की स्थापना करते हैं।
ज्ञान और कर्म का संतुलन ही वास्तविक योग है।
यज्ञ और तपस्या से भी ऊपर है ज्ञान यज्ञ।
गुरु से प्राप्त सच्चा ज्ञान ही अज्ञान को नष्ट करके आत्मा को मुक्त करता है।
ज्ञान कर्म संन्यास योग हमें सिखाता है कि जीवन में केवल कर्म या केवल त्याग नहीं, बल्कि ज्ञानयुक्त कर्म ही मुक्ति का मार्ग है। जब हम ईश्वर को समर्पित होकर कर्म करते हैं और गुरु से प्राप्त ज्ञान को आत्मसात करते हैं, तब जीवन बंधनमुक्त और पूर्ण हो जाता है।
2. अवतार का रहस्य3. कर्म और ज्ञान का संतुलन4. यज्ञ के विविध रूप5. ज्ञान का महत्वमुख्य संदेशसारांश