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ऋग्वेद मण्डल 1. सूक्त 24. मंत्र 8

ऋग्वेद मण्डल 1. सूक्त 24. मंत्र 8

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उ॒रुं हि राजा॒ वरु॑णश्च॒कार॒ सूर्या॑य॒ पन्था॒मन्वे॑त॒वा उ॑। अ॒पदे॒ पादा॒ प्रति॑धातवेऽकरु॒ताप॑व॒क्ता हृ॑दया॒विध॑श्चित्॥ - ऋग्वेद 1.24.8


पदार्थ -
(चित्) जैसे (अपवक्ता) मिथ्यावादी छली दुष्ट स्वभावयुक्त पराये पदार्थ (हृदयाविधः) अन्याय से परपीड़ा करनेहारे शत्रु को दृढ़ बन्धनों से वश में रखते हैं, वैसे जो (वरुणः) (राजा) अतिश्रेष्ठ और प्रकाशमान परमेश्वर वा श्रेष्ठता और प्रकाश का हेतु वायु (सूर्याय) सूर्य के (अन्वेतवै) गमनागमन के लिये (उरुम्) विस्तारयुक्त (पन्थाम्) मार्ग को (चकार) सिद्ध करते (उत) और (अपदे) जिसके कुछ भी चाक्षुष चिह्न नहीं है, उस अन्तरिक्ष में (प्रतिधातवे) धारण करने के लिये सूर्य के (पादा) जिनसे जाना-आना बने, उन गमन और आगमन गुणों को (अकः) सिद्ध करते हैं (उ) और जो परमात्मा सब का धर्त्ता (हि) और वायु इस काम के सिद्ध कराने का हेतु है, उसकी सब मनुष्य उपासना और प्राण का उपयोग क्यों न करें॥


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(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)

(सविनय आभार: www.vedicscriptures.in)

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